Tuesday, June 10, 2008

डीजीपी माने : डीफाईनिंग गवर्निंग पोलिसी

क्यों, चौंक गए शीर्षक देखकर। शायद आप भी इसे सही ठहरायेंगे यदि आपने आज उत्तर प्रदेश के डीजीपी का प्रेस वार्ता में दिया गया बयान सुना हो। गौरतलब है कि उनकी यह वार्ता कई टीवी चैनलों पर लाइव दिखाया जा रहा था। डीजीपी महोदय ने अपने मुख्यमंत्री को उद्धृत करते हुए कहा कि अब प्रदेश में क़ानून का राज रहेगा और पूर्व की सरकारों की तरह अपराधियों को संरक्षण नहीं दिया जाएगा।

एक राज्य के पुलिस महकमे के मुखिया का इस तरह का बयान निहायत ही गैर-जिम्मेदाराना कहा जा सकता है। जब पहले किसी अन्य दल की सरकार थी वर्त्तमान डीजीपी महोदय तब भी निश्चित रूप से पुलिस महकमे में किसी महत्वपूर्ण पद पर रहे होंगे। क्या तब उन्हें मालूम था कि उनकी सरकार अपराधियों को संरक्षण दे रही है। यदि हाँ, तो क्या उनहोंने कभी इसका विरोध किया? नहीं तो क्यों नहीं?

ब्लॉग लिखे जाने तक इस बयान पर विपक्षी दलों की कोई प्रतिक्रिया नहीं आयी थी लेकिन यह प्रश्न निश्चित रूप से विचारणीय है कि क्या किसी पुलिस अधिकारी को ऐसा बयान शोभा देता है? क्या यह स्थिति संकेत कर रही है कि आने वाले समय में राजनीतिक दल अपने समर्थक अफसरों की फौज तैयार करने में लग जाएंगे?

अगर ऐसा हुआ तो बेचारी जनता का क्या होगा? क्या वह जम्हूरियत के नाटक में बदलते किरदारों के लिए तमाशबीन भर बनी रहेगी?

Friday, January 25, 2008

सेवा के बहाने: भरते जाओ खजाने

ब्लोगिस्तान में भटकते-भटकते खबर लगी कि समाज सेवा व स्वयंसेवा के बीच कुछ लफडा हो गया है। सच्चाई क्या है इस पर दावे के साथ कुछ भी नहीं कहा जा सकता है। ताजा प्रकरण पर विशेष कछ नहीं कहना चाहूंगा, सिवाय इसके कि सिक्कों की खनक हो या ताकत की धौंस इनका प्रयोग कर कोई आदमी सच्चाई पर पर्दा नहीं डाल सकेगा। जैसा आशीष जी ने लिखा पब्लिक सब जानती है। मामला मीडिया में उछला तो शायद कुछ ज्यादा ही जानेगी। मैं इस मामले से अलग कुछ शेयर करना चाहता हूँ। वह विषय भी बच्चों से ही जुडा है।

जब भी कोई दिवस आता है, उसे भुनाने के लिए तमाम बिचौलिए पहले से तैयार बैठे होते हैं। बीते बाल दिवस पर मैं एक बस में सफर कर रहा था, मेरे ठीक आगे दो लडके जिनकी उम्र बमुश्किल 12-13 साल होगी, बूट पोलिश के साजो-सामान कंधे पर टाँगे घूम रहे थे। यह स्थिति मेरे लिए कतई आश्चर्यजनक नहीं थी। लेकिन आश्चर्य का विषय इसके बाद आया। उनमें से एक लडके घुटने के पास एक हरे रंग का बैज लगा था जिस पर अंग्रेजी में लिखा था- "I Know my rights, do you? www.cry/....." मुझे झटका सा लगा।

निश्चय ही बांटे गए बैज्स और टोपियों का आंकडा कहीं दिखा कर ऐसी संस्थाएं अपनी पीठ थपथपाती होंगी। और बच्चे किस स्तर तक अपने अधिकार जान पाते हैं, यह आपके सामाने है। अभी हाल ही में केन्द्र सरकार ने भी फर्जी समाजसेवियों की सूची जारी की है। शायद बड़ी मछलियाँ उनमें ना हों।

खैर उस लडके को सिर्फ बैज मिल था या उसके बारे में कुछ ज्ञान भी यह जानने की अपेक्षा मैं सहज पूछ बैठा- "भाई, यह कहाँ से मिला तुम्हें?" लड़का डरते हुए बोला -"कहीं से नहीं, आपको चाहिए क्या?" मैंने जबाव दिया -"नहीं चाहिए, पर मिला कैसे?" फिर उसका जबाव था-"पीवीआर के पास पोलिश कर रहा था तो एक भैया ने शर्ट पर लगा दिया।" मैंने पूछा- "क्यों लगाया?" जबाव था- "पता नहीं, सिर्फ इतना बोला की घर जाने तक लगाए रखना। आपको चाहिए तो ले लो।"

मुझे याद आया कि नौवी कशा में मैंने एक नामी प्रकाशक की किताब खरीदी थी। उस पर cry के लोगो के साथ लिखा था कि उस किताब की कीमत में से एक रूपया बच्चों के कल्याण के लिए खर्च किया जाएगा। उसी समय एक नामी नमक कम्पनी के नमक पैक पर भी ऎसी ही जानकारी होती थी। तब वैसे सामान खरीद कर ख़ुशी मिलती थी। लेकिन यह कल्याण किस तरह हो रहा है वह प्रत्यक्ष देखने का मौका मुझे इस दिन मिला था।

यह संस्था भारत ही नहीं विश्व स्तर पर बाल कल्याण कार्यक्रमों के लिए सुर्ख़ियों में रही है। लेकिन जिस तरह के अनुभव अब मिल रहे हैं, उनको देखते हुए कहा जा सकता है कि कुएँ में भंग पड़ी है, भंग की छोड़ कुआं साफ करने की सोची जाए।....

Monday, January 14, 2008

राष्ट्रीय (?) कवि सम्मेलन

जैसा कि आपलोगों को मालूम होगा हिन्दी अकादमी हर साल पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी के पहले दिल्ली में विशाल कवि सम्मेलन का आयोजन करती है। पिछले पांच साल से मैं भी इन कवि सम्मेलनों का गवाह बना लेकिन यह बात मेरी समझ में नही आयी कि ये 'राष्ट्रीय' कवि सम्मेलन कैसे हैं?

क्या सिर्फ अलग अलग क्षेत्र के कवियों का प्रतिनिधित्व ही कवि सम्मेलन को राष्ट्रीय बना देता है? क्या दिल्ली भर के श्रोताओं का इकट्ठा हो जाना कार्यक्रम को राष्ट्रीय कहने के लिए काफी है? या देश की राजधानी होने के कारण 'राष्ट्रीय' शब्द दिल्ली की बपौती है?

कविता-कहानी से अलग चलें तो शायद ऐसा नहीं है। राष्ट्रीय खेल असाम में, पुणे में, राष्ट्रीय विज्ञान कांग्रेस हैदराबाद में, अन्य राष्ट्रीय कार्यक्रम देश के अलग हिस्सों में हो सकते हैं तो ऐसी क्या मजबूरी है कि 'राष्ट्रीय कवि सम्मेलन' दिल्ली में ही हो?
क्या हिन्दी अकादमी इस प्रश्न पर विचार करेगी? खैर वह विचारे या न विचारे, आप का क्या कहना है?.....