Friday, February 6, 2009

क्या वाकई मंदी छा गयी है?

इन दिनों चारो तरफ़ एक ही शोर सुनाई दे रहा है। मंदी, मंदी, मंदी, ... छंटनी, छंटनी, छंटनी.... कुछ बड़े कारोबारी घराने आस लगाए बैठे हैं कि इसी बहाने सरकारी खजाने से कुछ उनके लिए भी निकल आए। कई ने तो महीनों पहले से कर्मचारियों के वेतन भत्तों में में कटौती और अन्यखर्चों में कमी कर दी है।
इसकी मार सबसे ज्यादा झेलनी पड़ रही है अभी अभी पढाई पूरी कराने वाले छात्रों को या उन लोगों को जिन्होंने जूनियर लेबल पर नौकरी शुरू ही की थी। ऊँचे पदों पर बैठे अधिकतर वेतनभोगी अभी भी सुरक्षित हैं हालाकि, उनकी भी साँसें अटकी हुई हैं। एक अनजाने अनदेखे खौफ के कारण। नौकरी से निकाले जा रहे तमाम जूनियर लेबल के नौकरीपेशा लोगों ने शिकायत शुरू कर दी है कि मालिक अपना मुनाफा बढ़ाने के लिए उनका सर कलम कर रहे हैं।
वैसे एक बात ध्यान आते है। तब मंदी का शोर शुरुआती दौड़ में था। प्रतिष्ठित मीडिया समूह जी न्यूज के मालिक सुभाष चंद्रा का बयान आया कि मंदी ने मीडिया पर असर दिखाना शुरू कर दिया है और अब विज्ञापन कम मिल रहे हैं। यकीन मानिए, इस बयान के बाद जी न्यूज के एक ख़ास कार्यक्रम का विज्ञापन समय देखने से पता चला कि विज्ञापन समय का अनुपात पहले के मुकाबले बढ़ा है, घटा नहीं। ऐसा और मामलों में भी सम्भव है।
आशंकित मंदी से निपटने के उपयोग किए जा रहे तौर तरीके भी संदेहास्पद मालूम पड़ते हैं। अधिकतर जगह निचले स्तर के कर्मचारियों को ही क्यों खामियाजा उठाना पर रहा है? क्या समेकित तौर पर पूरी कंपनी संभावित नुकसान को झेलने के लिए आगे नहीं आ सकती है? वैसे
yah सवाल अब भी बना हुआ है कि क्या वास्तव में दुनिया भर की आर्थिक उठा पटक ने भारत को भी प्रभावित किया है? अगर हाँ तो क्यों और किस हद तक? क्या पश्चिमी आर्थिक मोडल पर निर्भर होना इसका एक कारण है?

मुद्दे की तह तक जाने के लिए आप सबकी राय अहम् है। इसलिए इस ब्लॉग पर एक पोल आयोजित किया गया है। कृपया अपना वोट दें और अपनी राय टिपण्णी या इमेल के जरिए riteshinmedia@gmail.com पर भेजें। आपकी प्रतिक्रया का इंतजार है..