Saturday, November 17, 2007
बहस विकास के मॉडल पर ...
प्रस्तुतकर्ता :
ऋतेश पाठक
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11/17/2007 02:51:00 PM
Tuesday, November 6, 2007
कुछ नहीं जपना, पराया माल अपना
कुछ दिनों पहले मैं दफ्तर से वापस आ रहा था. रात्रि लगभग आठ बजे इंडिया गेट के पास पहुंचा. (यहां रोज बस बदलनी होती है.) तभी मेरी नजर पडी तीन चार विदेशी युवकों पर जो संभवत: अफ्रिकी मूल के थे. वे युवक एक ऑटो ड्राईवर को घेर कर चिल्ला रहे थे 'यू आर ए बिग थीफ, यू आर ए बिग थीफ'. तभी एक पीसीआर वैन वहां आ कर रुकी. इन लडकों ने 100 नंबर पर फोन कर के पीसीआर को बुलाया था. पीसीआर के रूकते ही लडकों ने पुलिस अधिकारी से अंग्रेजी में शिकायत की- 'वी केम हियर बाई हिज ऑटो, टू पे फेयर आई टुक आउट द मनी. ही स्नेच्ड माई नोट.'
पुलिस के बुलाने पर ऑटो वाले ने सफाई दी- 'गाडी रोकते ही मैंने यह नोट गिरा हुआ देखा. बाहर निकल कर मैंने उठाया तो ये लडके इसे अपना नोट बताने लगे.' नोट पूरे पांच सौ का था. इसलिए मामला थोडा पेंचीदा हो रहा था. बिना श्रम किये सौ रूपये भी हाथ लगने वाले हों तो कितनों की नीयत डोल जाती है.
कौन सच बोल रहा था यह किसी को मालूम नहीं था. पुलिसकर्मी ने ऑटो चालक से पूछा- 'पैसे तेरे हैं?' वह बोला- नहीं. 'तो फिर दे क्यों नहीं देते' वह बोला- 'साब, नोट सडक पर था और सबसे पहले इस पर मेरी नजर पडी है.'
'और किसी ने क्यों नहीं देखा?' पुलिस वाला कडकी से बोला. बहरहाल थोडी बहुत घुडकियों के बाद ऑटो चालक 500 का नोट देने को तैयार हो गया लेकिन उसने अपने पैंट की फटी जेब दिखाते हुए कहा कि उन लडकों ने पैसे छीनने के प्रयास में उसकी जेब फाड दी है.
'तुम्हें उसकी सिलाई के 20 रुपये मिल जाएंगे.' पुलिसकर्मी ने कहा.
ऑटो चालक ने नोट निकाल कर एक लडके के हाथ पर रख दिया. वह लडका पैसे लेकर वापस मुडा कि पुलिस ने आवाज दी- 'ओ मेन, फेयर?' सौ का नोट निकाल कर लडका बोला- 'सिक्स्टी रुपीज'. 'एंड ट्वेंटी फॉर रिपेयर ऑफ हिज पैंट' यह पुलिसकर्मी की आवाज थी. इस तरह किराये का निपटारा होने के बाद दोनों पक्ष अपने अपने रास्ते चल पडे. साथ ही तमाशबीन भी अपनी राह चल दिये.
पुलिस के इस त्वरित न्याय पर कई लोगों को ऐतराज भी हुआ तो कई खुश दिखे. मुझे यह निर्णय उचित ही लग रहा था. कारण, मुझे चार साल पहले अपने साथ घटी एक घटना याद आ गयी. वहां भी पूरे मामले के केंद्र में पांच सौ का ही नोट था.
मैं अप्रैल 2004 में पहली बार दिल्ली आया था. दो महीने बाद वापस घर जाने के लिए पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन पर पहुंचा. रात के तकरीबन नौ बजे शहीद एक्सप्रेस का समय था. काउंटर संख्या 23 पर टिकट की लाईन में मेरा नंबर आया तो पांच सौ का नोट बढाकर मैंने समस्तीपुर के लिए दो टिकट मांगा. तभी पीछे से धक्का लगने के कारण मैं उधर मुडा. जब तक मेरी नजर टिकट खिडकी के अंदर गयी तब हाथ में एक सौ का नोट था, काउंटरमेन 110 रुपये और मांग रहा था.
मैं भौंचक्का सा बोला- भाई साब, मैंने 500 का नोट दिया है और मुझे समस्तीपुर की दो टिकट चाहिए. काउंटरमेन बोला- 'बडा स्याना बन रहा है, चल और पैसे निकाल.' कुछ देर नम्र भाव में फिर चिल्ला- चिल्ला कर मैं अपने टिकट और पैसे मांगता रहा. काउंटरमेन का एक ही जबाव था- 'नहीं लेनी टिकट तो किनारे हो जा.'
मैंने अंदर झांककर उसके जेब पर लटकी नाम-पट्टिका को पढा फिर खिडकी के उपर लिखी खिडकी संख्या को. इसके बाद काउंटरमेन से अंतिम बार अपनी बात कह मैं गुस्से में वापस पलटा. पहली बार दिल्ली आया था और पहली बार ही इतने बडे शहर में ऐसी स्थिति से सामना हुआ था. स्टेशन मास्टर के बारे कई लोगों से पूछने पर भी उनका चैंबर पता नहीं चल पा रहा था. बिना प्लेटफॉर्म टिकट लिए अंदर घुसने में डर लग रहा था तो दूसरी ओर गाडी के आने बमुश्किल 20-25 मिनट रह गये थे.
तभी प्लेटफॉर्म के प्रवेश द्वार पर एक सिपाही को देख मैंने पूछ दिया- 'भाई साब, स्टेशन मास्टर किधर मिलेंगे?'
'के बात हो गई?' कानों में आयी इस आवाज को समझने में मुझे कोई दो तीन मिनट लग गये. फिर मैंने उससे सारी बात बतायी.
'सच बोले है? पक्का?' जैसे सवाल कई बार करने के बाद वह मेरे बताये अनुसार काउंटर नंबर 23 पर पहुंचा. लाईन के किनारे से खिडकी तक पहुंच कर वह काउंटरमेन से बोला- 'इसकी टिकट क्यों नहीं देता?'
काउंटरमेन अपनी बात पर अडा था. वह कहता रहा कि मैं 100 रुपये का नोट लेकर आया था और अब झूठ बोल रहा हूं.
दूसरी ओर मैं अपनी रट लगाए जा रहा था. दो तीन बार उसकी बात सुनने के बाद सिपाही ने कहा 'इसकी टिकट दे दे और बाकी पैसे भी वापस कर दे.' दो एक बार इंकार करने के बाद काउंटरमेन ने मुझसे सौ का नोट लेकर दो टिकट और अस्सी रुपये दे दिये.
मुझे विश्वास नहीं हुआ कि नबावी हेकडी दिखा रहा वह रेलकर्मी टिकट देने के लिए तुरंत मान कैसे गया. पुलिस की कर्तव्यनिष्ठा से मैं प्रभावित हुआ. रेलकर्मी को जली- कटी सुनाता हुआ मैं सिपाही को धन्यवाद देने लगा.
टिकट लेकर मैं प्लेटफॉर्म के प्रवेशद्वार पर पहुंचा ही था कि उस सिपाही ने आवाज दी. यही जगह थी जहां मैंने उसे आपबीति सुनाई थी. मैंने कहा 'साब बहुत बहुत शुक्रिया, आप न होते तो शायद मैं आज घर न जा पाता.'
'तेरे पैसे बच गये कुछ खर्चा पानी तो करो.' यह उसका जबाव था.
मुझे लगा कि मैं सपने से जगा हूं. क्षण भर पहले तक जिस दिल्ली पुलिस की कर्तव्यनिष्ठा का मैं मुरीद बना हुआ था उसका नया चेहरा मेरे आंखों के सामने आया. फिर मैंने सोचा कि अगर यह न अडता तब तो पांच सौ की चपत लगी हुई थी. साथ ही खर्चा- पानी की बात करते हुए उसके चेहरे की भाव भंगिमा कुछ ऐसी थी कि मुझे लगा कुछ दे ही देना चाहिए.
जिन लोगों का सरकारी दफ्तरों बराबर पाला पडता हो वह इस हालत को बखूबी समझ सकते हैं. उस समय दिल्ली में दाखिले के लिए आने से पहले आवासीय व आय प्रमाण पत्र के लिए मैंने भी दफ्तरों के चक्कर काटे थे. अंतत: खर्चा- पानी से ही निदान हुआ था. यहां तक कि बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में काउंसिलिंग की तारीख से एक दिन पहले जब मैं अपने कॉलेज कुछ प्रमाण- पत्रों के लिए गया था तो किरानी ने खर्चा पानी के अभाव में बना- बनाया प्रमाण- पत्र वापस रख लिया था और साफ शब्दों में कहा 'तुम्हारा एडमिशन कहीं हो न हो हमें क्या मतलब? बनारस जाना जरूरी थोडे है, यहीं से बीए कर लेना.'
इन यादों के जोर मारने पर मैंने जेब में हाथ डाला और बीस रुपये निकाल कर सिपाही की ओर बढा दिया. अब उसके तेवर देखने लायक थे. 'बे तेरे से भीख मांग रहा हूं क्या? पांच सौ रुपये बचा दिये, दो सौ तो दे दे.' वह चीख कर बोला.
मैंने कहा भाई साब आपका तो काम ही है हमें बचाना. इसमें क्या अनर्थ हो गया. हां जहां तक और पैसों की बात है, मेरे पास कुल अस्सी रुपए ही हैं, इसमें दो लोगों को घर तक जाना है. रास्ते का खर्च भी तो चाहिए!
वह बोला 'अगर पैसे वापस न मिलते तो कैसे वापस जाता?'
'फिर नहीं जाता और पैसे थोडे न हैं मेरे पास, इतने ही बचे हैं चाहो तो चालीस ले लो' मैं बोला.
उसने फिर पूछा 'सौ भी नहीं है, सच बोल रहे हो?'
'हां' मेरे इस जबाव को सुन वह बोला 'रेहने दे फिर, जल्दी निकल ले.' भागा भागा मैं किसी तरह गाडी में सवार हो पाया.
यहां इंडिया गेट की ताजा घटना हो, वर्षों पुरानी रेलवे स्टेशन पर की या कॉलेज के किरानी का व्यवहार. सारी घटनाओं के एक साथ याद आने का कारण है इनमें उभयनिष्ठ एक चीज. वह उभयनिष्ठ चीज है बिना श्रम के अधिक से अधिक पाने की चाहत.
प्रस्तुतकर्ता :
ऋतेश पाठक
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11/06/2007 03:39:00 PM
लेबल: पराया माल अपना, रास्ते पर
Friday, November 2, 2007
करवा चौथ किसके लिए?
भले ही करवा चौथ कई दिन पहले बीत गया हो लेकिन सबसे तेज चैनल की और से पूछा गया यह सवाल बरबस याद आता है. यह सवाल यूँ ही मजाक नही था बल्कि इसके लिए पूरे दस हजार रुपये का सोना इनाम में दिया जाना था.
वैसे इस सवाल के याद आने का एक और कारण है. करवाचौथ से एक दिन पहले शाम को जब मैं सड़क पर घूम रहा था तो किनारे पटरी पर कुछ पूजन सामग्री बिकती दिखी. उन्हीं के साथ करवाचौथ व्रत कथा लिखा एक छोटा सा कैलेंडर था. उसके ठीक बगल में एक बड़ा पोस्टर था. ये पोस्टर किसी और का नहीं बोलीवुड के किसींग किंग 'जोन अब्राहम' का था.
तभी एक मित्र का फ़ोन आया. मैंने उसे आंखों देखा हाल बताया तो तुरंत बोल उठी "वाह! क्या कोम्बिनेशन है?" परम्पराओं के प्रति नयी पीढी के नजरिये का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है.
कुछ दिनों पहले जब गणेश चतुर्थी थी मुझे याद है, गिने चुने लोगों ने मेरे मोबाइल पर शुभकामना संदेश भेजा. लेकिन इसी दिन एक मित्र की और से संदेशों की बौछार लगी थी- "happy Tatty day." बहुत देर की दिमागी कसरत के बाद मैंने उस मित्र को जबाव भेजा कि जो डे वह मना रहे हैं वैसा शब्द अंग्रेजी डिक्शनरी में नहीं है ऐसे में वह डे अस्तित्व में कैसे आ गया? उसका जबाव था "यार मुझे भी मैसेज आ रहे थे, मैंने फोर्वार्ड कर दिया."
ऐसे में अगर आने वाले दिनों में करवा चौथ के दिन अब्राहम देवता या अभिषेक बाबा की पूजा की प्रथा चल पड़े तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए.
प्रस्तुतकर्ता :
ऋतेश पाठक
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11/02/2007 05:56:00 PM
लेबल: करवा चौथ/ परमपराएं